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राम कथा रस वाहिनी

इस पुस्तक में भगवान श्री सत्य साई बाबा
द्वारा राम कथा पर लिखा गया लेख प्रस्तुत किया गया है | 

दूसरा अध्याय
राजवंश

                    उज्जवल पवित्र सूर्यवंश में खत्वंग नामक एक महान पराक्रमी, यशस्वी, बलशाली, लोकप्रिय और सम्मानित राजा का जन्म हुआ | उसके प्रशासन ने राज्य की विशाल प्रजा पर परमानंद की वर्षा की जिसके फलस्वरूप संपूर्ण प्रजा उसे इतना आदर देने लगी मानो वह स्वयं परमात्मा हो | उसका दिलीप नामक इकलौता पुत्र था | वह ज्ञान और गुणों के ऐश्वर्य से पूर्ण हो कर बड़ा हुआ | वह प्रजा की सुरक्षा और देखभाल के साथ आनंद और शुभ अवसर में अपने पिता की मदद करता था | वह अपनी प्रजा के सुख-दुख जानने , उनकी पीड़ा और दुखों को दूर करने के सर्वोत्तम उपाय खोजने तथा नागरिकों के सुख और समृद्धि के उद्देश्य से उनके मध्य घूमता था | पिता ने देखा कि उसका बेटा अब बड़ा हो गया है और वह अति बलशाली, गुणवान और बुद्धिमान है | उसने पुत्र के लिए वधू ढूंढनी आरंभ कर दी ताकि वह विवाह के बाद पुत्र के कंधों पर कुछ राज्यभार डाल सके | राजा ने दूर-दूर तक राजघरानों में वधु के लिए खोज की क्योंकि कन्या राजकुमार की योग्य जीवनसंगिनी होनी चाहिए थी | अंत में उसने मगध राजकुमारी सुदक्षिणा का चुनाव किया | राज्य के लोगों तथा दरबार ने अत्याधिक धूमधाम से उनका विवाह रचाया।
            
                    सुदक्षिणा में नारी के सभी गुण विपुल मात्रा में विद्यमान थे| वे पवित्र , साधारण तथा सच्ची पतिव्रता थी | वे अपने प्राणों के समान ही अपने पति की सेवा और उससे प्रेम करती थी | वे अपने पति के चरण चिन्हों पर चलती थीं और धर्ममत पर सदैव अड़िग रहती थीं |
दिलीप भी धर्म की प्रति मूर्ति थे और इसके परिणाम स्वरुप उन पर सुख-दुख का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था | जहां तक राज प्रशासन का संबंध था दिलीप अपने पिता के ही आदर्शों और नियमों पर ही दृंढ रहते थे और इसी कारण धीरे-धीरे पूर्ण रूप से प्रशासन का पूरा दायित्व अपने कंधो पर लेने में वे समर्थ हुए | इस प्रकार उन्होंने पिता को उनकी वृद्धावस्था में विश्राम दिया | राजा खत्वंग अपने पुत्र के महान गुणों और उसके कौशल, योग्यता तथा व्यावहारिक ज्ञान को देखकर मन ही मन अति हर्षित होते थे |


                    इस प्रकार कुछ वर्ष बीत गए | खत्वंग ने अपने राज्य ज्योतिषियों को आदेश दिया कि वे दिलीप के राजतिलक के लिए शुभ दिन और मुहूर्त निश्चित करें | उनके द्वारा निश्चित दिवस पर उसने दिलीप को संपूर्ण साम्राज्य का राजा बना दिया | उस दिन से दिलीप सात द्वीपों के विशाल साम्राज्य के सम्राट के रूप में प्रतिभासित हुए | उनका राज्य इतना न्याययुक्त, दयापूर्ण तथा शास्त्रों के आदेशों के अनुरूप था कि आवश्यकता के समय पर्याप्त वर्षा हुई और बहुत घनी फसल हुई | संपूर्ण साम्राज्य में हरियाली छाई थी | प्रत्येक गांव में हो रहे वेद पाठ की पवित्र ध्वनि तथा सारे राज्य में आयोजित वैदिक यज्ञों में उच्चरित मंत्रों के निर्मल स्वर से संपूर्ण राज्य गूंज रहा था | सभी वर्ग परस्पर मित्रता पूर्वक रहते थे |

    
                   फिर भी, महाराज के मुख पर एक रहस्य में चिंता दिखाई देती थी | उनका मुंह फीका पड़ता जा रहा था | कुछ वर्ष बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं आया | उनके मुख पर निराशा की गहरी रेखाएं अंकित हो गई | एक दिन राजा ने अपनी रानी सुदक्षिणा से अपने दुख का कारण प्रकट करते हुए कहा - “प्रिये ; हमारे कोई संतान नहीं है और इसी कारण मुझ पर उदासी छाई है | जब मैं यह सोचता हूं कि मेरे साथ इक्ष्वाकु वंश भी समाप्त हो जाएगा तो मुझे और अधिक दुख होता है | मैंने अवश्य ही ऐसा कोई पाप किया होगा जिसके फलस्वरूप यह विपत्ति आई है | अपने इस दुर्भाग्य को टालने का मुझे कोई उपाय नहीं सूझ रहा है | मैं राज गुरु वशिष्ठ मुनि से वह उपाय सीखने को अति उत्सुक हूं जिसके द्वारा मैं ईश्वर कृपा प्राप्त कर अपने पाप का विमोचन कर सकूं | मैं अति दुखा:भीभूत हूं | प्रभु-कृपा पाने के लिए तुम्हारे विचार मैं कौन सा साधन सर्वोत्तम है?”

                   सुदक्षिणा ने तुरंत उत्तर देते हुए कहा, “स्वामी; मेरे मन में भी यही विचार था जिस कारण मैं बहुत दुखी थी | लेकिन मैंने इसे प्रगट नहीं किया | मैंने इसे मन में ही रखा क्योंकि मुझे मालूम है कि मैं अपने स्वामी की प्रेरणा के बिना अपने दुख को प्रगट नहीं कर सकती | हमारे दुख-निवारण के लिए जो साधन या उपाय आपको सर्वोत्तम लगे मैं उसका निस्संदेह पालन करने को सदैव तत्पर और उत्सुक हूं | अब इसमें विलंब कैसा ? हम शीघ्र ही पूजनीय वशिष्ठ मुनि का परामर्श ले |”


                  दिलीप ने राजगुरू के आश्रम की तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए राजरथ लाने का आदेश दिया | उन्होंने आदेश दिया कि उस दिन किसी रक्षक या सेवक को उनके साथ जाने की आवश्यकता नहीं है | वास्तव में वे स्वयं रथ चला कर अपने गुरुदेव की साधारण कुटी में पहुंच गए|

                  रथ की आवाज सुनकर आश्रम की सीमाओं पर बैठे तपस्वियों ने कुटी के भीतर जाकर अपने स्वामी को राजा के वहां पधारने की सूचना दी | ज्योहि वशिष्ठ ने राजा दिलीप को द्वार पर देखा त्यों ही उन्होंने आशीर्वाद दिया और अति स्नेह पूर्वक राजा के स्वास्थ्य के विषय में तथा प्रजा एवं उसके संबंधियों का कुशलक्षेम पूछा ।


                  सुदक्षिणा ने ऋषि की यशस्विनी पत्नी अरुंधति के चरणों में प्रणाम किया | ऋषि-पत्नी नारी के सर्वश्रेष्ठ गुणों की खान थी | अरुंधति ने सु दक्षिणा को उठाकर गले से लगा लिया तथा उसका कुशलक्षेम पूछा | वे दक्षिणा को आश्रम के भीतर ले गईं ।
साम्राज्य के शासक के रूप में दिलीप ने वशिष्ठ से पूछा कि क्या तपस्वीओं द्वारा परंपरागत रूप से किए जाने वाले सांस्कृतिक यज्ञ बिना किसी विघ्न के कुशल पूर्वक हो रहे थे, तथा सन्यासीयों को भोजन प्राप्त करने तथा अपने अध्ययन व आध्यात्मिक अभ्यासों में कोई कठिनाई तो महसूस नहीं हो रही थी | क्या वन में जंगली पशुओं का भय तो नहीं था | राजा ने कहा कि वे आज श्रमिकों के अध्ययन तथा आध्यात्मिक अभ्यास की उन्नति में प्रतिकूल वातावरण या प्रभाव के कारण कोई विघ्न नहीं आने देना चाहते थे ।

                 जब राजा और रानी आश्रम में अन्य एकत्रित ऋषि-मुनियों तथा साधकों सहित अपने स्थान पर बैठे थे तो कुछ देर बाद वशिष्ठ ने अन्य सभी आश्रमिकों को बाहर भेजकर राजा से केवल रानी के साथ वहां अकेले आने का कारण पूछा । राजा ने गुरु को अपना गहन दुःख बताया और प्रार्थना की, कि उनका अनुग्रह ही इसका एकमात्र उपाय था ।

                उनकी यह प्रार्थना सुनने पर वशिष्ठ गहन ध्यान में डूब गए । पूर्ण मौन छा गया राजा जमीन पर पद्मासन लगाकर बैठे गए और उन्होंने अपने चित्त को ईश्वर पर केंद्रित किया । रानी भी भगवान का ध्यान कर रहीं थीं।

               अंत में वशिष्ठ ने अपने नेत्र खोलकर कहा, “ महाराज! चाहे कोई मनुष्य कितना ही बलशाली या अधिकार संपन्न हो, लेकिन वह ईश्वर इच्छा का विरोध नहीं कर सकता । मुझे परमात्मा की आज्ञा का उल्लंघन करने का कोई अधिकार नहीं है । आपको वांछित पुत्र देने के लिए मेरा आशीर्वाद पर्याप्त नहीं है। आपको एक श्राप मिला हुआ है। एक बार जब आप राजधानी में अपने घर लौट रहे थे तो कामधेनु नामक दिव्य गाय कलपतरु के नीचे विश्राम कर रही थी । आपकी दृष्टि उस पर पड़ी लेकिन आप ने सांसारिक सुखों के जाल में फंसे होने के कारण उस पर ध्यान नहीं दिया और गर्व सहित महल की ओर चले गए। इस उपेक्षा पर कामधेनु को बहुत दुःख हुआ। उसे लगा कि राजा ही अपने कर्तव्य पालन में विफल हो गया तो उसकी प्रजा भी अब उसका (कामधेनु का) निरादर करना आरंभ कर देगी । उस धेनु ने तर्क करते हुए कहा कि जो राजा वेदों की पूजा नहीं करता या फिर वेदों का अध्ययन व पालन करने वाले ब्राह्मणों का आदर नहीं करता या मनुष्य का पोषण करने वाली गाय की उपेक्षा करता है और स्वच्छंद व मर्यादा विहीन हो कर राज्य करता है, उसके राज्य में धर्म का अभाव होता है।

               उस दिन कामधेनु ने आप को श्राप दिया कि आपका कोई उत्तराधिकारी पुत्र नहीं होगा । फिर भी उसने घोषित किया कि जब आप गुरु के परामर्श से विनय और सम्मान सहित गाय की सेवा करना शुरू करेंगे तथा कृतज्ञता पूर्वक उसकी अर्चना करेंगे तो यह श्राप निष्फल हो जाएगा और फिर आपके उत्तराधिकारी पुत्र का जन्म होगा।

              अतः इसी क्षण से अपनी रानी सहित वैदिक नियमानुसार गौ पूजन प्रारंभ करो । फिर आपको अवश्य ही पुत्र मिलेगा । गोधूलि वेला होने वाली है । मेरी दिव्य गाय नंदिनी तीव्र गति से आश्रम की ओर आ रही है। जाओ, भक्ति और दृढ़ विश्वास सहित उसकी सेवा करो । उसे यथा समय भोजन और पानी दो। गाय को नहला कर उसे चराने ले जाओ और यह ध्यान रखो कि घास चराते समय उसे कोई कष्ट ना हो ।

              फिर वशिष्ठ ने राजा और रानी से धेनुव्रत प्रारंभ करवाया। उन्होंने उन दोनों को शुद्ध जल और पूजा सामग्री देकर गौशाला में भेज दिया । स्वयं स्नान तथा संध्या प्रार्थना करने नदी की ओर चले गए ।

              एक दिन जब नंदिनी गाय जंगल में आनंद पूर्वक घास चर रही थी तो एक सिंह ने उसे दूर से देखा और अपनी भूख मिटाने के लिए उसका पीछा करने लगा । दिलीप ने यह देख लिया; उसने गायक को शेर के पंजे से बचाने के लिए अपने पूरे कौशल का प्रयोग किया । उसने बदले में अपना शरीर तक देने का निश्चय कर लिया । अतिक्रूर और भयानक होते हुए भी वह शेर धर्मनिष्ठ था । उसे राजा के उस बलिदान पर दया आ गई जो वह अपनी अर्चित गाय के प्रति कर रहा था। सिंह ने द्रविभूत होकर राजा और गाय दोनों को ही अपने चंगुल से छोड़ दिया और वहां से चला गया।

               दिलीप की आत्मा बलिदान की भावना को देखकर नंदिनी अकथनीय कृतज्ञता भाव तथा हर्ष से भर गई । उसने कहा - “राजा आपको जो श्राप मिला था वह इसी क्षण से अब दूर हो गया है । आपको एक पुत्र होगा जो संपूर्ण विश्व पर प्रशासन करेगा, धार्मिक नियमों तथा अभ्यास पर बल देगा, भूलोक और स्वर्ग में यश अर्जित करेगा, कुल की कीर्ति को बढ़ाएगा और इन सबसे बढ़कर वह उस इक्ष्वाकु वंश को बनाए रखेगा, जिसमें एक दिन स्वयं नारायण भगवान जन्म लेंगे।” “यह पुत्र शीघ्र ही उत्पन्न हो” नंदनी ने राजा को आशीर्वाद दिया । राजा द्वारा सेवित तथा पारीपोषित वह पवित्र गाय वशिष्ठ के आश्रम में लौट गई।

               वशिष्ठ को कुछ बताने की आवश्यकता नहीं थी ; उन्हें सब मालूम था। ज्यों ही उन्होंने राजा रानी का मुख देखा , त्यों ही वे समझ गए कि उनकी इच्छा पूर्ण हो गई है । अतः वशिष्ठ ने उन्हें आशीर्वाद देकर नगर को लौटने की आज्ञा दी । दिलीप और सुदक्षिणा ने ऋषि को नमस्कार किया और हर्ष सहित महल को लौट गए।

               आशीर्वाद के अनुसार शिशु गर्भ में बड़ा होता गया । समय पूरा हो जाने पर शुभ घड़ी में पुत्र का जन्म हुआ। जब नगर और राज्य में यह शुभ समाचार फैला तो हजारों लोग हर्षोल्लास सहित महल के आसपास एकत्र हो गए ; सड़कों पर बंदनवारें और तोरण लगाए गए ; सभी लोग आनंदमग्न हो नाच रहे थे ; उन्होंने आरतियां उतारीं । अपार जनसमूह जय-जयकार के उदघोष के साथ महल के प्रांगण में एकत्र हुआ।

               दिलीप ने आदेश दिया कि मंत्री स्वयं जाकर महल के विशाल प्रांगण में एकत्र अथाह जनता के मध्य नये युवराज के जन्म की घोषणा करें । इस घोषणा पर लोगों की हर्ष ध्वनि से आकाश गूंज उठा । उनकी जय- जयकार के उदघोष से सड़कें प्रति ध्वनित हो उठीं। लोगों को उस भारी भीड़ से निकल कर घर तक पहुंचने में कई घंटे लग गए ।

              दसवें दिन राजा ने गुरु को आमंत्रित कर शिशु का नामकरण संस्कार किया । जन्म नक्षत्र आधार पर उसका नाम रघु रखा गया । शिशु की बाल सुलभ चेष्टाओं और क्रिडाओं को देखकर सभी प्रफुल्लित होते थे। अपनी चारुता और उज्जवल के कारण वह सभी की आंखों का तारा था ; यौवन की देहली बार करने पर वह अपने पिता का एक वीर, दृढ़ और योग्य सहायक बन गया ।

              एक दिन रात को राजा ने ना जाने रानी से क्यों कहा कि “सुदक्षिणा ! मैंने अनेक श्रेष्ठ विजयें प्राप्त की हैं। मैं अनेक वैदिक यज्ञ करने में सफल हुआ हूं । मैंने अनेक शक्तिशाली शत्रुओं (जिनमें दानव और राक्षस भी शामिल है) के साथ भयानक युद्धों में उन पर विजय पाई है । हमें भगवान की दया से ऐसा पुत्र मिला है जो एक अमूल्य रत्न है । हमें सब कुछ मिल गया है और अब हमें कुछ नहीं चाहिए ।

             “अब हम अपना शेष जीवन ईश्वर भक्ति में बिताएं। रघु तो सर्वगुणों की खान है । वह सभी प्रकार से शासन का कार्यभार संभालने के योग्य है । यह राज्य उसे सौंपकर हम एकांत जंगलों में रहेंगे, कंदमूल खाएंगे, ईश्वरीय विचारों और ईश्वरोंन्मुखी साधना से परिपूर्ण तपस्वी जीवन यापन करने वाले ऋषि मुनियों की सेवा करेंगे और प्रत्येक क्षण को श्रवण, मनन निदिध्यासन ( निर्धारित पथ के अभ्यास) द्वारा सार्थक करेंगे। हम आलस्य या जणता में एक क्षण भी नष्ट नहीं करेंगे।”

               प्रभात बेला होते ही राजा ने मंत्री को अपने पास बुलाया और उसे युवराज के राजतिलक तथा विवाह की तैयारियां करने का आदेश दिया । त्याग भाव से परिपूर्ण रानी ने राजा से अपनी योजना के विषय में सम्मति मांगी। उसने हर्ष तथा कृतज्ञता के अश्रुओं सहित कहा “इससे बढ़कर मेरा क्या सौभाग्य हो सकता है । मैं तो आपके आदेशों का ही पालन करूंगी । आप की योजना के अनुरूप ही कार्य करूंगी ।” रानी के उत्साह और सहर्ष स्वीकृति से राजा का निश्चय एवं संकल्प और दृढ़ हो गया ।

              दिलीप ने अपने सभी मंत्रियों विद्वानों और ऋषियों को एक साथ बुलाकर उनके समक्ष अपने पुत्र के राजतिलक और विवाह उत्सव का विचार व्यक्त किया। वे सभी सहर्ष सहमत हो गए और महान धूमधाम से ये दोनों उत्सव मनाए गए। फिर पिता ने राजकुमार को प्रशासन संबंधी अमूल्य परामर्श दिया जिसमें वेदों के अध्ययन, वैदिक विद्या में दक्ष विद्वानों के पालन पोषण तथा प्रसिद्ध उन्नति लाने वाले नियमों के निर्धारण पर बल दिया गया। तत्पश्चात वे ईश्वर अनुग्रह प्राप्त करने के लिए रानी सहित वन को चल दिए ।

              उस दिन से राजा रघु ने पंडितों के निर्देशानुसार अपनी प्रजा के सुख और नैतिक विकास, इन दो पहलुओं को दृष्टिगत रखते हुए राज्य पर शासन करना प्रारंभ कर दिया । उनका यहां तक विश्वास था कि वे दोनों ही पहलू प्राणों के समान अनिवार्य थे और उन्होंने इन आदर्शों को बनाए रखने में और अपने मंत्रियों को इस मार्ग पर अड़िग रखने का पूरा प्रयास किया। युवक होने पर भी वे गुणवान थे; उन्होंने अपनी प्रजा को प्रसन्न और संतुष्ट रखा। दुष्ट राजाओं को उन्होंने महान पाठ पढ़ाए । उन्होंने उन राजाओं को शांतिपूर्वक अपनी कूटनीतिओं द्वारा, या उनको पराजित करने के लिए कुछ सेना तैनात करके अथवा खुले रूप में उनसे युद्ध कर रणभूमि में उन्हें पराजित कर उन पर विजय प्राप्त कर ली थी।

               वे जनहित के कार्यों में लगे रहते थे। उन्होंने वेदों में प्रतिष्ठित संस्कृति का विकास किया । सभी जाति एवं वर्ग के लोग चाहे वे किसी भी आयु, आर्थिक पद या अधिकार के हो, उनकी प्रशंसा करते थे । लोगों का कथन था कि वे शारीरिक बल , धर्म, आचरण तथा दयालुता में अपने पिता से भी बढ़कर थे । सभी का कहना था कि उन्होंने अपने नाम को चिरस्मरणीय बना दिया है ।

               रघु जंगलों में तपस्या करने वाले श्रमिकों की सुख सुविधाओं का विशेष ध्यान रखते थे; जंगलों में उनकी रक्षा तथा प्रोत्साहन के लिए किए गए प्रबंधों का निरीक्षण करने वे स्वयं जाते थे । अतः उन्हें विपुल मात्रा में आश्रमिकों का आशीर्वाद और अनुग्रह प्राप्त था।

               एक दिन वर्तन्तु ऋषि का कौत्सु नामक शिष्य, जो कि आश्रम में पढ़ता था , अपना अध्ययन समाप्त करने के बाद दरबार में आया। उसने राजा से गुरु दक्षिणा देने के लिए कुछ सहायता मांगी। रघु ने उसे धन दे दिया ; कौत्सु बहुत प्रसन्नता कि उसे मिली यह भेंट शुद्ध थी, बिना किसी को दुख दिए एकत्रित की गई थी और रघु ने उसे प्रसन्नता और कृतज्ञता पूर्वक दी थी क्योंकि रघु ईश्वर के क्रोध के भय से सदा अपनी वास्तविक आवश्यकता के अतिरिक्त एक पैसा भी नहीं रखते थे । उन्होंने अत्यधिक स्नेह और ध्यान पूर्वक वह धन दिया था । अतः कौत्सु आनंदित व आभार युक्त था । उसका ह्रदय खिल उठा और उसने अति प्रेम पूर्वक राजा से कहा- “ परमात्मा शीघ्र ही आपको एक पुत्र दे जिसे विश्व कीर्ति मिले ।” इसके साथ ही वह राजा के पास से चला गया।

              उसके वचनानुसार 10 माह के बाद रघु के पुत्र हुआ जो कि रत्न के समान कांति युक्त था । राज पंडितों ने उसका नामकरण संस्कार आदि किया । उसका नाम ‘अज’ रखा गया । वह अति मनोरम बालक था । बड़ा होने पर वह सभी कलाओं और विज्ञानों को सीखने को आतुर एक उज्जवल बालक बन गया और इन सभी विषय में वह निपुण हो गया । संपूर्ण पृथ्वी पर उसकी विद्युत एवं निपुणता का यश फैल गया ।

              कुछ समय पश्चात रघु के मन में भी अपने पिता के समान ही यह इच्छा उत्पन्न हुई कि वह अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर स्वयं ईश्वर चिंतन हेतु जंगलों में चला जाए। उसने भी मंत्रियों को बुलाकर युवराज के राजतिलक करने का प्रबंध करने तथा इसके साथ ही किसी योग्य कन्या के साथ उसके विवाह के लिए तैयारियां करने का आदेश दिया । मगध राज्य के राजा भोज की बहन इंदुमती को उसकी वधू चुना गया । अज को सिंहासन पर बिठाकर राजा व रानी ने जंगल में अपने आश्रम के लिए प्रस्थान किया।

               अज ने अपनी प्रिय जीवनसंगिनी के साथ अपने ज्ञान और सहानुभूति द्वारा प्रजा का दिल जीत लिया ; उन्होंने रघु द्वारा प्रशासन संबंधी विषयों पर दिए गए परामर्श का पूर्ण रूपेण पालन किया । अज संपूर्ण विश्व और मनुष्यों से इंदुमती ( जिससे उसे प्रगाढ़ प्रेम था) कि ही प्रति छाया और प्रति मूर्तियों के रूप में प्रेम और आदर करते थे। अतः वे सदा प्रसन्नता और उल्लास से रहते थे । वे कई-कई दिन और सप्ताह जंगलों में बिताते थे और वहां प्राकृतिक सौंदर्य को निहारते थे ।

              इसी बीच रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। इस शुभ अवसर पर माता-पिता के हर्ष का पारावार नहीं था; उन्होंने अपने पूज्यनीय गुरु वशिष्ठ को सूचना भेजी । वे बच्चे का नामकरण संस्कार करवाना चाहते थे ; उसका नाम दशरथ रखा गया ।

              वास्तव में जिसे भी दशरथ को देखने और दुलारने का शुभ अवसर मिला दशरथ उन सभी का लाडला बन गया । शिशु इस प्रकार अंग हिलाता और उठाता था मानो वह पूर्ण चैतन्य और आनंद हो । ऐसा प्रतीत होता था आनंद ही इस बालक का आहार था और यह सब को आनंद देने के लिए ही जीवित था।

               एक दिन अज और इंदुमति अपनी आदत के अनुसार प्रकृति का आनंद उठाने जंगल में गए। उस दिन जंगल की निस्तब्धता और नीरवता अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक प्रगाढ़ थी। वे एक वृक्ष की छाया में बैठकर प्रेमालाप कर रहे थे तभी वायु का एक प्रचंड झोंका आया जो अकथनीय सुगंधि से परिपूर्ण था । इसके साथ ही उन्होंने मनमोहक दिव्य संगीत लहरें सुनी । इन रहस्यात्मक उपहारों का कारण जानने के लिए वे उठ खड़े हुए और अपने चारों ओर खोजने लगे। उन्होंने देखा कि उनके ऊपर आकाश में ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद तीव्र गति से कहीं जा रहे थे । जब नारद को देख रहे थे तो नारद के जुड़े में लगी पुष्पमाला का एक फूल टूट कर हवा के झोंके के साथ बहता हुआ बिल्कुल इंदुमती के सिर पर आकर गिरा । इस घटना पर अज दंग रह गए; लेकिन यह देखकर उन्हे आघात लगा कि तभी रानी अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ी और उसने सदा के लिए आंखें मूंद लीं ।

               जिस स्त्री से वे प्राणों के समान अगाध प्रेम करते थे। उसकी मृत्यु से राजा को महान शोक पहुंचा । उसके विलाप से सारा जंगल हिल उठा । उनके प्रति सहानुभूति से पृथ्वी डोल गई, राजा के गहन दुःख को देखकर वृक्ष भी स्थिर हो गए।

              नारद ने राजा को अपनी प्रियतमा पत्नी के शव पर विलाप, क्रंदन और चीत्कार करते सुना। वे राजा को सांत्वना देने नीचे आए और बोले “राजन! मृत्यु पर दुखी होना व्यर्थ है ; शरीर को तो जीना व मरना है। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी होगी ; इसका कारण जानना तो एक उन्माद या पागलपन है। ईश्वर के कार्य ‘ कारण और परिणाम’ चक्र से परे होते हैं । सामान्य बुद्धि जीवी उनको नहीं जान सकते ; वे तो केवल अपनी सीमित बुद्धि तक ही इसके कारण का अनुमान लगा सकते हैं । भला बुद्धि अपनी सीमा से बाहर की वस्तु को कैसे जान सकती है? प्रत्येक देहधारी की मृत्यु अवश्यंभावी है। लेकिन फिर भी मैं तुम्हें बताऊंगा कि इंदुमती की मृत्यु इस अद्भुत प्रकार से क्यों हुई।” नारद ने अज को अपने समीप लाते हुए कहा - सुनो ! प्राचीन काल में तृणबिंदु नामक ऋषि घोर तपस्या मग्न थे । इंद्र ने उनकी उपलब्धि तथा स्थिर- चित्तता की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उसने हारिणी नामक दिव्य अप्सरा को ऋषि को भोग- विलासमय संसार की ओर आकृष्ट करने को भेजा । लेकिन ऋषि उसके छल -कपट से अप्रभावित बने रहे। उन्होंने अपने नेत्र खोलकर कहा “तुम कोई साधारण स्त्री नहीं मालूम होती हो; शायद तुम कोई अप्सरा हो । लेकिन, चाहे तुम कोई भी हो तुम्हें अपने इस दुष्कर्म और जघन्य योजना के लिए अवश्य दंड मिलना चाहिए। तुम स्वर्ग से गिरकर मनुष्य के रूप में जन्म लो ; यह सीखो की मर्त्य बनना क्या होता है।” इस प्रकार उसे श्राप देकर ऋषि ने अपनी आंखें बंद कर लीं और फिर ध्यान मग्न हो तपस्या में लीन हो गए।

                 हरिणी भय से कांप उठी और उसके नेत्रों में से पश्चाताप के आंसू फूट पड़े । उसने याचना की , कि उसे स्वर्ग से निर्वासित ना किया जाए। उसने श्राप वापस ले लेने के लिए ऋषि से करुण स्वर में विनती की । इस पर ऋषि को उस पर कुछ दया आ गई और उन्होंने कहा -” हे दुर्बले मैं अपने वचन वापस नहीं ले सकता हूं । लेकिन मैं तुझे वह अवसर बताता हूं जब तू मुक्त होगी। सुन जिस क्षण स्वर्ग से एक फूल तेरे सिर पर गिरेगा तभी तेरी मानुषिक देह समाप्त हो जाएगी और फिर तू स्वर्ग को वापस जा सकेगी ।” इंदुमती वह देव अप्सरा है और आज वह मुक्त हो गई। जो भी मेरा पहना हुआ उस उस पर गिरा तभी वह श्राप मुक्त हो गई । इस पर तुम दुखी क्यों होते हो? विलाप करना व्यर्थ है नारद ने राजा के कर्तव्यों तथा सबके समक्ष उसके द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले उदाहरणों के विषय में बताया । नारद ने जीवन की नश्वरता, मृत्यु के रहस्य तथा जन्म लेने वाले सभी प्राणियों के परम भाग्य के विषय में बताया। तत्पश्चात नारद आकाश में अपने मार्ग पर चल दिए।

                अपनी प्रियतमा को बचाने में असमर्थ अज उसका दाह संस्कार आदि कर राजधानी पहुंचे । वे शोक संतप्त थे केवल राजकुमार दशरथ ही उन्हें कुछ सांत्वना और संतोष प्रदान कर उन्हें जीवित रखने में सहायता कर सकते थे । उनका जीवन नीरस व कठोर हो गया । दशरथ अब अपने पूर्ण यौवन पर थे ; अतः राजा ने उन्हें राज्यभार सौंप दिया और स्वयं सरयू नदी के तट पर भोजन आदि का त्याग कर बैठ गए। इस प्रकार उन्होंने अपना जीवन ही समाप्त कर दिया।

                जैसे ही दशरथ ने यह समाचार सुना, वे सरयू तट की ओर भागे और अपने पिता की मृत्यु पर फूट-फूट कर रोने लगे । उन्होंने तुरंत ही अंत्येष्टि क्रिया का प्रबंध किया । किंतु उनके मन में कुछ संतोष था कि उनके पिता ने धार्मिक मृत्यु द्वारा अपना जीवन त्यागा । इस बात से उन्हें कुछ बल मिला और उन्होंने पूर्ण कौशल सहित राजा के रूप में राज्य भार संभाल लिया।

                अल्प काल में ही दशरथ की कीर्ति उदित सूर्य किरणों के समान सर्व दिशाओं में फैल गई । राजा दशरथ में 10 साथियों की वीरता और कौशल होने के कारण उनका नाम अति सार्थक था । उनके पराक्रमी रथ का कोई भी सामना नहीं कर सकता था । उनके समकालीन सभी राजा उनके बल और पराक्रम से भयभीत थे तथा उनके समक्ष सिर झुकाते थे । संपूर्ण विश्व ने उनका अतुलनीय वीर गुणों की खान तथा सर्वश्रेष्ठ राजनीतिज्ञ के रूप में यशोगान किया। 

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