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राम कथा रस वाहिनी

इस पुस्तक में भगवान श्री सत्य साई बाबा
द्वारा राम कथा पर लिखा गया लेख प्रस्तुत किया गया है | 

प्रथम अध्याय
राम : राजकुमार और राज नियम 

            ‘राम’ नाम वेदों का सार हैं, राम कथा शुभ और शुद्ध क्षीरसागर है । यह कहा जा सकता है कि आज तक अन्य भाषाओं या राष्ट्रों में इसके समान विशाल और सुंदर काव्य नहीं मिल सकता । लेकिन इसने प्रत्येक भाषा और देश की काव्यात्मक कल्पना को प्रेरणा प्रदान की है। यह तो प्रत्येक सौभाग्यशाली भारतीय द्वारा संचित अमूल्य धरोहर है।
                
             राम हिंदुओं के लोक रक्षक देव हैं , व्यक्तियों और उनके निवास के भवनों के नाम ‘राम नाम, पर रखे जाते हैं ।यह कहा जा सकता है कि ऐसा कोई भारतीय नहीं होगा । जिसने मधुर राम कथा के अमृत को ना चखा हो ।

            महाकाव्य रामायण , जिसमें राम अवतार की कथा है, एक पवित्र ग्रंथ है । जिसका पाठ ज्ञानी-अज्ञानी , धनी-निर्धन सभी लोग समान रूप से अति श्रद्धा व भक्ति भाव सहित करते हैं। रामायण में गौरवान्वित नाम सभी बुराइयों को धो देता है , पापियों को परिवर्तित कर देता है तथा उस साकार रूप को व्यंजित करता है जो राम के नाम के समान मनमोहक है ।

            जिस प्रकार पृथ्वी के संपूर्ण जल का स्त्रोत समुद्र है , उसी प्रकार सभी जीव राम से उत्पन्न है। जल के बिना समुद्र मिथ्या है ,राम के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं है। सर्वशक्तिमान ईश्वर की नीलवर्ण समुद्र से उपमा हो सकती है।

            कथाओं में समुद्र को भगवान का निवास स्थान कहा गया है, इनमें परमात्मा का वर्णन क्षीरसागर में आसीन रूप में किया गया है। इसी कारण प्रचेतस के पुत्र महाकवि वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य के प्रत्येक अध्याय को काण्ड का नाम दिया है काण्ड का अर्थ है जल अथवा जल विस्तार ।

            इसका अर्थ गन्ना भी होता है चाहे गन्ना कैसा भी टेढ़ा मेढ़ा हो, लेकिन उसके किसी भी भाग को चूसने पर एक समान मिठास मिलती है । रामकथा - मंदाकिनी अनेक टेढ़े मेढ़े रास्तों से निकलती है लेकिन करुणा का माधुर्य संपूर्ण कथा में ज्यों का त्यों बना रहता है । यह नदी विषाद,कौतुक, हास्य ,आश्चर्य ,भय, प्रेम, नैराश्य और तर्क से होती हुई निकलती है, लेकिन इसका प्रमुख अंतर प्रवाह है धर्म और करुणा ।
        
            राम-कथा का अमृत सरयू नदी के समान है जो कि राम के जन्म स्थान तथा उनके द्वारा शासित अयोध्या के पास शांत रूप में प्रवाहित है जिस प्रकार सरयू का मूल स्त्रोत हिमालय के मानसरोवर में है उसी प्रकार इस कथा का उद्भव भी मानसरोवर (मन रूपी झील ) में हुआ है । राम करुणा के माधुर्य की सरिता हैं । उनके भाई लक्ष्मण भक्ति माधुर्य की मंदाकिनी हैं जिस प्रकार सरयू नदी गंगा में जाकर मिल जाती है और दोनों नदियों का जल एक हो जाता है उसी प्रकार करुणा और भक्ति की सरिताएं ( राम और लक्ष्मण की कथाएं ) रामायण में एक हो जाती हैं। करुणा और प्रेम मिलकर राम की महिमा का पूर्ण स्वरूप बनाते हैं। वह रूप प्रत्येक भारतीय की मनोकांक्षा की पूर्ति करता है। इसे प्राप्त करना ही प्रत्येक आध्यात्मिक प्रयास का लक्ष्य है।

            आधा तो मनुष्य का प्रयास होता है और शेष आधा ईश्वर का अनुग्रह होता है । मनुष्य आत्मा-प्रयास तथा दैवी अनुग्रह द्वारा अपना चरम लक्ष्य प्राप्त करता है। उसकी यह प्राप्ति उसे द्वैत के अंधकार पूर्ण समुद्र को पार कर ,अंतरस्थ तथा परम अद्वैत तक यह जाती है।

            रामायण का पठन एक मानव की जीवनी के रूप में नहीं वरन एक अवतार के आगमन और उसके कार्यों के रूप में करना चाहिए । मनुष्य को निजी अनुभवों द्वारा इस कथा में व्यंजित आदर्शों की अनुभूति करने का प्रयत्न करना चाहिए । परमात्मा सर्वज्ञाता, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है । वह मानव रूप धारण कर जो वचन कहता है तथा अवतार रूप में जिन कार्यों को करता है , वे अगम्य तथा अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उसका अमूल्य संदेश मानव जाति के मोक्ष के पथ को सरल बनाता है। राम को रघुकुल की संतान या अयोध्या के शासक या राजा दशरथ के पुत्र के रूप में मत देखो ।ये सभी संबंध तो गौंण व आकस्मिक हैं । यह त्रुटि आधुनिक पाठकों की आदत बन गई है। वे कथा के चरित्रों के व्यक्तिगत संबंधों पर ध्यान देते हैं लेकिन इन चरित्रों द्वारा प्रस्तुत तथा वर्णित मूल्यों की गहराई में नहीं जाते।

            यह त्रुटि इस प्रकार होती है: राम के पिता की तीन रानियां थीं। पहली का नाम था, दूसरी का स्वभाव ऐसा था, तीसरी के अमुक-अमुक लक्षण थे , उनकी दासिया कुरूप थीं, राम के पिता दशरथ ने जो युद्ध किए उनकी अमुक -अमुक विशेषताएं थीं, आदि-आदि। इस प्रकार यह भावनाएं मनुष्य को गौण विचारों की ओर ले जाती हैं, जिसके परिणाम स्वरूप वह मूल्यवान फल की परवाह नहीं करता। लोग यह नहीं समझते कि इतिहास के अध्ययन द्वारा साधारण तथ्यों तथा गौण विचारों को ग्रहण करने की अपेक्षा जीवन को समृद्ध ,सार्थक और सफल बनाना चाहिए। इतिहास की प्रमाणिकता और महत्व उसके तथ्यों की गहराई में निहित है ,जो कि धरती के भीतर बहते हुए जल के समान इनका पालन-पोषण करता है। भक्ति और श्रद्धा के नेत्रों से देखो तभी ये नेत्र तुम्हें मोक्ष एवं परम आनंद प्रदायक पवित्र ज्ञान प्रदान करेंगे।

            जिस प्रकार मनुष्य गन्ने को निचोड़ कर केवल उसका मधुर रस ही पीते हैं जिस प्रकार मधुमक्खी फूलों के रूप वा रंग की परवाह ना करते हुए, उनका मधु या शहर चूसती है, जिस प्रकार पतंगा गर्मी और अपनी दुर्गति की परवाह ना करते हुए अग्नि की लौ के चारों ओर मंडराता रहता है उसी प्रकार साधक को भी अन्य विषयों पर ध्यान ना देते हुए रामायण में प्रवाहित करुण रस को ग्रहण करना चाहिए। जब हम कोई फल खाते हैं । तो उसका छिलका बीज और रेशे फेंक देते हैं यह तो प्रकृति का स्वभाव है कि प्रत्येक फल में यह तीनों वस्तुएं होती है लेकिन कोई इन्हें इसलिए नहीं खाएगा कि उसने इनका मूल्य दिया है। कोई भी व्यक्ति बीज नहीं खा सकता और ना ही उन्हें पचा सकता है। कोई भी फल के छिलके नहीं चबाएगा। इसी प्रकार इस रामायण नामक रामफल में राक्षसों की कथाएं फल का छिलका है; इन दुर्जनों के दुष्ट कार्य अपचनीय बीज है सांसारिक वर्णन एवं घटनाएं कम स्वादिष्ट गूदा हैं ये तो वास्तव में रसीले तत्व को सुरक्षित रखने हेतु आवरण हैं।

            जो लोग राम रूपी फल में करुण रस पाना चाहते हैं उन्हें रामकथा को अलंकृत और विस्तृत बनाने वाले अनुपूरक वर्णनों की अपेक्षा मुख्य कथानक पर अधिक ध्यान देना चाहिए। इसी मनः स्थिति में रामायण सुनो यह श्रवण का सर्वोत्तम रूप है ।

            एक बार राजा परीक्षित ने शुक मुनि के चरणों में गिरकर अपनी एक ऐसी शंका के निवारण हेतु उनसे प्रार्थना की जो उन्हें अत्यंत व्याकुल कर रही थी। “ स्वामी ! एक पहेली मुझे बहुत समय से व्याकुल कर रही है। मुझे मालूम है कि उसका समाधान आपके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता। मैंने महान मनु से लेकर अपने पितामह तथा पिता तक सभी पूर्वजों का जीवन वर्णन सुना है । मैंने बहुत ध्यानपूर्वक इन कथाओं को पढ़ा है। मैंने देखा कि इन सभी के इतिहास में राजा के साथ विद्वान ऋषियों का वर्णन है । जो राज्य सभा के सदस्य थे और जो शासन के कार्य में सहयोग करते थे। सभी इच्छाओं से मुक्त ऐसे निर्लिप्त विद्वानों का, जिन्होंने जगत को मिथ्या और माया तथा केवल अद्वैत को ही एक मात्र सत्य जान लिया है, सत्ता के साथ इस विष्मयकारी संबंध का क्या अर्थ है क्या अर्थ है जिसमें वे राजाओं के साथ रहकर उन्हें परामर्श देते हैं । मैं जानता हूं कि ऐसे पूजनीय गुरु जन पर्याप्त तथा उचित कारण के बिना कोई भी कार्य नहीं करते । उनका आचरण सदा शुद्ध और निर्दोष होता है। लेकिन इससे मेरी शंका और अधिक गहन हो गई है कृपया इसका समाधान करें।”

            इस प्रश्न पर शुक हंस दिए। उन्होंने उत्तर दिया, “ निसंदेह तुमने बड़ा अच्छा प्रश्न पूछा है । सुनो! महान ऋषि मुनि तथा वेद ज्ञाता स्वयं द्वारा ग्रहण किए सत्य को , अपने शुद्ध अनुभव को, अपने सत कर्मो को तथा प्राप्त दिव्य अनुग्रह को अपने साथियों के साथ बांटने को सदैव तत्पर रहते हैं। वे ऐसे लोगों का संपर्क ढूंढते हैं जो प्रशासक हैं तथा राज्य करने में दक्ष हैं। ऐसा वे केवल इस भावना से करते हैं ताकि पृथ्वी पर शांति और समृद्धि की स्थापना हेतु इन प्रशासकों व राजाओं का साधन के रूप में प्रयोग किया जाए । वे उनके हृदय में उच्च आदर्शों तथा उनकी पूर्ति के लिए पवित्र साधनों का रोपण करते हैं । उन्हें नियमानुसार धार्मिक कर्म करने को प्रेरित करते हैं। राजा भी ऋषियों को आमंत्रित करते हैं और उनका स्वागत करते हैं। वे विद्वानों को खोजते हैं और उन्हें अपनी राज्यसभा में सम्मिलित होने के लिए उनसे आग्रह करते हैं। ताकि वे उनसे प्रशासन तथा राजनीति की कला सीकर उनके सीख कर उनके परामर्श के अनुसार कार्य कर सकें । राजा ही प्रजा का स्वामी और संरक्षक होता था। अतः वे राजा के माध्यम से अपनी इस हार्दिक अभिलाषा की अनुभूति के उच्च उद्देश्य हेतु उनके साथ जीवन बिताते थे। “ लोका: समस्ता सुखिनो भवंतु” - सभी लोग सुखी हो । इसीलिए उन्होंने राजाओं को नैतिक नियमों से परिपूर्ण, सर्वगुण संपन्न तथा सर्वज्ञान संपन्न करने का प्रयास किया ताकि वे कुशलता पूर्वक, बुद्धिमता, सहित तथा स्वयं एवं प्रजा के हित में राज्य पर शासन करें।

            इसके अन्य कारण भी थे । सुनो ! यह ज्ञात होने पर कि संसार को आनंद प्रदान करने वाला एवं नैतिक नियमों का निर्धारक रघुकुल नायक वैकुंठ वासी राजकुल में जन्म लेगा, भविष्य दृष्टा ऋषि-मुनियों ने राजाओं की सभाओं में प्रवेश आरंभ कर दिया ताकि ईश्वर के पृथ्वी पर अवतार के समय उन्हें उनके सानिध्य की आनंदअनुभूति हो सके। उन्हें डर था कि शायद बाद में उन्हें राज सभाओं में प्रवेश ना मिल सके और वे उस आनंद से वंचित रह जाएं । अतः वे अपनी दूरदर्शिता का लाभ उठाकर अवतार की प्रतीक्षा में प्रजा के मध्य राजधानी में ही रहने लगे।

            इस पूजनीय वर्ग में वशिष्ठ, विश्वामित्र , गर्ग, अगस्त्य, तथा अन्य ऋषिगण थे। उनकी कोई इच्छा या लालसा नहीं थी । वे महान त्यागी थे। उनकी किसी से कोई अपेक्षा नहीं थी । वे संतुष्ट थे। वे तत्कालीन राजाओं की सभाओं में शास्त्रार्थ करने या विधता प्रदर्शन या फिर ब्राह्मणों एवं अतिथियों को भेंट में मिलने वाले अमूल्य उपहार लेने या राजाओं द्वारा प्रिय विद्वानों को विभूषित करने वाले उपनामों या सम्मानों के बोझ से अलंकृत होने के लिए नहीं जाते थे। इसकी बजाय वे भगवान के दर्शन तथा मानव व्यवहार में धर्म की स्थापना करने का शुभ अवसर प्राप्त करने की लालसा से जाते थे । इसके अतिरिक्त उनका राज्यसभा में जाने का अन्य कोई उद्देश्य नहीं था।

            उस काल के राजा भी दिव्य विचारों से ओतप्रोत थे। वह अपनी प्रजा को प्रसन्न और सुखी बनाने के लिए उपाय खोजने के लिए ऋषि मुनियों के आश्रमों में जाते थे । प्रायः वे उनसे उत्तम प्रशासन की विधियों के विषय में परामर्श लेने के लिए उन्हें अपनी राज्यसभा में आमंत्रित करते थे। उस समय के ऋषियों को आत्ममोह नहीं था आत्मा मोह नहीं था और विद्वानों को अधिकार या सत्ता का लालच नहीं था। राजाओं को सलाह देने वाले ऐसे ही ऋषि और विद्वान हुआ करते थे । इसके परिणाम स्वरूप उस समय की प्रजा के लिए भोजन, वस्त्र , घर और अच्छे स्वास्थ्य का कोई आभाव नहीं था । सभी दिन पर्व या उत्सव के समान थे। द्वारों पर हरी बंदनवारे लगी रहती थीं। राजा अपनी प्रजा के हित की रक्षा करने को ही अपना सर्वाधिक पवित्र कर्तव्य समझते थे । प्रजा भी राजा को राजनीति रूपी देह का हृदय मानती थी। उन्हें यह पूर्ण विश्वास था कि राजा उनके हृदय के समान अमूल्य है । प्रजा राजा का आदर सत्कार करती थी तथा उसके प्रति कृतज्ञ थी। इस प्रकार शुक ने अपने समक्ष बैठे विशाल जन समुदाय को राज्य में ऋषियों की भूमिका के विषय में स्पष्ट रूप से बताया।

            क्या ने तुमने कभी इस पर ध्यान दिया? महान पुरुष किसी भी संगति में हो वे सदा धार्मिक तथा दिव्य मार्ग पर चलते रहते हैं उनके सभी कार्य विश्व के लिए कल्याणकारी होते हैं अतः रामायण या अन्य दिव्य कथाओं के पठन के समय ईश्वर के ऐश्वर्य और रहस्य की बजाय उसमें निहित सत्य और सरलता पर और दैनिक जीवन में उन गुणों के अभ्यास पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए अन्य विषयों को कोई महत्व नहीं देना चाहिए अपने कर्तव्य पालन की विधि सीखना ही सर्वोत्तम शिक्षा है।

            जब ईश्वर धर्म की रक्षा हेतु साकार रूप में प्रकट होता है तो वह मनुष्य की भांति आचरण करता है। उसे ऐसा करना आवश्यक होता है क्योंकि उसे मनुष्य के समक्ष आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करना होता है तथा मानवता को आनंद व शांति की अनुभूति प्रदान करनी होती है। उसकी लीलाएं चाहे कुछ लोगों की दृष्टि में सामान्य तथा साधारण हों लेकिन उसकी प्रत्येक लीला में सत्य, शिव , सुंदरता , आनंद और हर्ष की अभिव्यक्ति होती है जो संसार को अपने सौंदर्य से मोहित कर लेती है तथा इसका चिंतन करने वाले ह्रदय को शुद्ध बना देती है। यह चित्त के सभी द्वन्दों का सामना कर उन्हें वश में कर लेती है। यह माया का आवरण भेद डालती है यह चैतन्य को माधुर्य से पूर्ण कर देती है। अवतार के जीवन में कुछ भी सामान्य या साधारण नहीं हो सकता। वास्तव में उसका प्रत्येक कर्म अतिमानवीय तथा अतिपूजनीय होता है । राम कथा किसी व्यक्ति विशेष की कहानी नहीं है । यह तो संपूर्ण विश्व की कथा है । राम सर्वजीवों की मूलभूत सार्वभौमिकता का मानवीकरण हैं वे सर्वव्यापी, सर्वकालिक और सार्वदेशिक हैं यह कहानी विगत से नहीं अपितु वर्तमान और भविष्य से तथा अनादि और अनंत से संबंध रखती है।

        राम के संकल्प के बिना चींटी भी नहीं काट सकती राम की प्रेरणा के बिना कोई पत्ता डाल से नहीं गिर सकता। विश्व की रचना करने वाले आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी - ये पंचभूत तत्व भी राम से डरते हैं और उनके आदेशा अनुसार ही चलते हैं । राम ही वह तत्व है जो प्रकृति के असमान भूतों को आकर्षित कर उनमें सामंजस्य उत्पन्न करते हैं इस पारस्परिक आकर्षण द्वारा ही विश्व का अस्तित्व और संचालन होता है।

        यही वह राम तत्व और राज नियम है जिसके बिना सृष्टि उथल-पुथल हो जाएगी । इसीलिए कहा जाता है “राम बिना आराम नहीं”। 

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