इस पुस्तक में प्रशांति निलयम से प्रकाशित होने वाली
मासिक पत्रिका "सनातन सारथी" के अंतर्गत भगवान
श्री सत्य साई बाबा द्वारा धर्म सिद्धांतों पर लिखे गए
लेख प्रस्तुत किये गए हैं |
धर्म किसी समाज या राष्ट्र विशेष तक ही सीमित नहीं है; इसका क्षेत्र अपार और असीमित है क्योंकि यह संपूर्ण जीव जगत से पूरी तरह संबंधित है | यह वह दिव्य ज्योति है जो कभी भी बुझ नहीं सकती है | धर्म की पारमार्थिकता निर्बाध है | इस पर किसी प्रकार का जोर-दबाव नहीं रहता है | कृष्ण ने अर्जुन को गीता की शिक्षा दी थी, लेकिन यह थी संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए | अर्जुन तो निमित्त मात्र ही था | वही गीता आज संपूर्ण मानवता का सुधार और कल्याण कर रही है | यह किसी जाति, धर्म या राष्ट्र विशेष के लिए नहीं है | मानव के लिए यह प्रत्येक स्थान पर जीवन शक्ति और प्राण के समान है |
मानव समाज में धर्म विभिन्न रूपों में हमारे समक्ष प्रकट होता है । लोग इसे भिन्न-भिन्न रूपों में देखते और जानते हैं । कभी इसे उस व्यक्ति के नाम से पुकारा जाता है, जो उसका संकलनकर्ता है या जो इसे परिभाषित करता है, जैसे मनुधर्म। कभी धर्म उसका पालन करने वाले वर्गों के आधार पर जाना जाता है जैसे वर्ण धर्म और कभी धर्म जीवन की अवस्था (आश्रम-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास ) के अनुसार जाना जाता है जैसे गृहस्थ धर्म। लेकिन यह सब धर्म के सहायक और व्यवहारिक पक्ष हैं, ना की आधारभूत या मौलिक प्रतिमान । मैं जिस धर्म के बारे में बातचीत करता हूं, वास्तव में यह आत्मधर्म है, दैविक धर्म है । व्यवहारिक धर्म या आचार धर्म सांसारिक और क्षणिक पदार्थों तथा समस्याओं व भौतिक आवश्यकताओं से संबंध रखता है और वस्तुनिष्ठ जगत से मानवीय क्षणभंगुर संबंधों पर आधारित है। जब इन नियमों का निमित्त मानव शरीर ही स्थाई नहीं है, तब यह उपर्युक्त धर्म कैसे शाश्वत हो सकते हैं ? और उनकी प्रकृति को किस प्रकार सत्य प्रकृति कहा जा सकता है ? जो अनादि है, अनंत है, शाश्वत या नित्य है, वह धर्म किस प्रकार लुप्त हो सकता है? सत्य असत्य में प्रगट नहीं हो सकता ; प्रकाश की प्राप्ति अंधकार से नहीं हो सकती। शाश्वत और नित्य का अभ्युदय शाश्वत और नित्य से ही संभव है। सत्य की उत्पत्ति केवल सत्य से ही होती है। अतएव, धर्म की ये वस्तुपरक संहितायें, नियमावलीयां सांसारिक कार्य-कलापों एवं दैनिक जीवन से ही संबंधित हैं, पारलौकिक जीवन से नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि इनका अपना कोई महत्व नहीं है; इनका अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन इनका अनुसरण आंतरिक मूलभूत आत्म-धर्म के पूर्ण ज्ञान और जागरूकता के साथ किया जाना चाहिए; तभी अंतः और बाह्य प्रेरणाओं में सहयोग पैदा होता है और सुव्यवस्थित प्रगति का आनंद उत्पन्न होता है।
यदि तुम अपने दैनिक कार्य-कलापों में आत्मिक या आंतरिक धर्म के वास्तविक मूल्यों को प्रयोग में लाते हो और उन्हें वास्तविक प्रेम पूर्ण कार्यो में परिणित कर देते हो, तो आत्मिक सत्ता के प्रति तुम्हारा कर्तव्य पूर्व हो जाता है, सदैव अपने जीवन का निर्माण आत्मिक आधार पर करो तुम्हारी प्रकृति सुनिश्चित है।
आज भगवान को पत्थर बना देने की कोशिश की जा रही है। तुम ही बताओ, जब तुम्हारा वास्तविक कार्य पत्थर को भगवान के रूप में देखना या मानना हो, तब इस प्रकार के प्रयत्नों से भगवान की खोज किस प्रकार की जा सकती है। पहले ईश्वरत्व के रूप का मनन और ध्यान करो और उस मोहनी रूप को अपनी चेतना में अंकित कर लो, उसके बाद पत्थर में उस रूप को देखो और ध्यान की प्रक्रिया में पत्थर को भूल जाओ, जब तक कि वह पत्थर भगवान के रूप में परिणित ना हो जाए। उसी प्रकार तुम्हें अपनी चेतना में मौलिक धर्म को, आत्मा के आधारभूत सत्य को यह विचार कर बसाना है कि वास्तविक सत्ता यही है और इसके बाद इस विश्वास और दूरदृष्टि के साथ, कि तुम्हें भौतिक जगत की विविधता, नाना रूपता, उसके आकर्षणों और उलझनों से निपटना है। केवल इस प्रकार ही आदर्श या लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। यदि आत्म-धर्म का बोध प्राप्त कर कार्य किया जाए, तो धर्म के वास्तविक अर्थ के घुल-मिल जाने और आत्म-धर्म की कांति के पीले पड़ जाने या खो जाने का कोई भय ही नहीं रह जाता है।
जब पत्थर की पूजा भगवान के रूप में की जाती है, तब क्या होता है? पत्थर की मूर्ति की पूजा करते समय अनंत, अपार और सर्वव्यापी परमात्मा की परम सत्ता के एक स्थूल वस्तु में दर्शन होते हैं। इसी प्रकार धर्म सार्वभौमिक है, सबके लिए समान है और सब प्रकार के बंधनों से मुक्त है और उसका अनुमान हर परिस्थिति में लगाया जा सकता है तथा एकमात्र स्थूल कार्य में भी उसका अनुभव किया जा सकता है। इस भ्रम में ना पड़ो की यह संभव नहीं है। क्या संसार में बहुत सी चीजें ऐसी नहीं है जिनको प्राप्त करना तुम्हारे लिए कठिन हो जाता है ? क्या ऐसी चीजें नहीं है, जो तुम्हें चिंता युक्त और भयभीत करती हैं ? फिर भी तुम उन्हें प्राप्त करने की कोशिश करते हो। यदि मनुष्य बुद्धिमान है तो वह दुर्लभ वस्तुओं के बजाय ऐसी वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है जो अधिक उपयुक्त है और जो उसके मन को शांति प्रदान करती है।
स्वतंत्रता तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। यह तभी संभव है जब तुम सार्वभौमिक बंधन मुक्त धर्म द्वारा प्रकाशित पथ पर चलो। इस सत्यपथ पर चल कर तुम वास्तव में बंधन मुक्त हो सकते हो लेकिन, यदि तुम उस सत्य धर्म रूपी प्रकाश पथ से विचलित हो जाते हो, तो सांसारिक बंधनों में फस जाओगे और उनमें जकड़ जाओगे। कुछ लोगों को यह शंका हो सकती है कि धर्म जो कि विचारों और शब्दों के लिए सीमा निर्धारित करता है, जो उन्हें नियमित और नियंत्रित करता है, वह किसी व्यक्ति को मुक्त किस प्रकार कर सकता है। “स्वतंत्रता” का नाम तुम एक विशेष प्रकार की दास्तां या बंधन के लिए देते हो; वास्तविक स्वतंत्रता तो उस समय प्राप्त होती है जब किसी प्रकार की भ्रांति या भ्रम नहीं रहता, शरीर और इंद्रियों का ख्याल नहीं रहता और इस भौतिक जगत की दास्तां नहीं रहती। इस संसार में ऐसे बहुत ही कम व्यक्ति हैं, जो इस दासता से छुटकारा पा चुके हों और वास्तविक रूप में स्वतंत्र हों। जो भी कार्य शरीर के निजत्व को ध्यान में रखकर किया जाता है, उस में बंधन है क्योंकि मनुष्य जब इंद्रियों का खिलौना बन जाता है। वे ही स्वतंत्र हैं, जो इस प्रारब्ध से छुटकारा पा लेते हैं। इस प्रकार की स्वतंत्रता ही आदर्श स्थिति है, जिसकी ओर धर्म मनुष्य को अग्रसर करता है। ऐसी ही परमानंद की स्थिति को ध्यान में रखकर जब कोई अपना जीवन यापन करता है, सांसारिक कृत्य करता है तब वह मुक्त हो सकता है और मुक्त पुरुष कहला सकता है।
सांसारिकता में लिप्त होने और सांसारिक बंधनों में बंधने का कारण स्वयं तुम ही हो। स्वयं अपने कारण ही तुम इस परमानंद प्रदायक धार्मिक पथ से विचलित हो जाते हो। सांसारिक बंधनों में तुम्हें और कोई नहीं बांधता; तुम स्वयं ही बंध जाते हो । हमेशा ऐसा ही होता है। यदि तुम्हें यह अटल विश्वास हो जाए कि ईश्वर सर्वव्यापक है, तो तुम जागरूक रहोगे और हमेशा यह विचार करोगे कि ईश्वर ही तुम्हारी आत्मा है और तुम सांसारिक बंधनों में नहीं बंधोगे। इस प्रकार के दृढ़ विश्वास को बढ़ाने के लिए तुम्हें आत्मानंद को पूरी तरह समझ लेना चाहिए, उसे आत्मसात कर लेना चाहिए । आत्मा की सत्ता वह मूल सिद्धांत है, वह मूल ज्ञान है जो अकाट्य है अर्थात निश्चित ज्ञान है। इस बुनियाद के बिना, मनुष्य विश्वास, निराशा और भ्रम का शिकार हो जाता है। इस प्रकार तुम धर्म का वरण नहीं कर पाओगे।
अतः सबसे पहले बंधन मुक्त होने का प्रयास करो, अर्थात सफल जीवन के प्राथमिक उपाय के रूप में आत्मा में विश्वास पैदा करो जो कि तुम्हारे व्यक्तित्व का मर्म है। उसके बाद अनुशासन सीखो और उसका अभ्यास करो जो इस मर्म का सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। जब तुम यह योग्यता हासिल कर लोगे, तब धर्म का पालन करते हुए, सांसारिक कार्य सुचारू रूप से कर सकोगे। धर्म का पालन करने से तुम्हारे सारे कार्यों का नियमन होता रहेगा। तब तुम एक सदाचारी व्यक्ति, धर्म पुरुष बन जाओगे। जो व्यक्ति इस भौतिक, वस्तुनिष्ठ संसार को अपने जीवन का सर्वस्व मान लेते हैं, वे पशुवत जीवन व्यतीत करते हैं। इस प्रकार का जीवन ईश्वर को पत्थरवत मत मानने के समान सारहीन होता है। पत्थर को ईश्वर बनाना बहुत ही पवित्र और अत्याधिक हितकारी कार्य है। इसी प्रकार प्रत्येक कार्य में आत्म-धर्म का दर्शन करना ही पूजा है। इससे उन्नति होती है और सांसारिक कार्य के बंधनकारी लक्षण समाप्त हो जाते हैं। यदि सांसारिक जीवन के कार्य शाश्वत सत्य धर्म की उपेक्षा करके किए जाते हैं, तो वे ईश्वर को पत्थर बनाने के समान अपवित्र हैं। यदि मनुष्य आचारधर्म का तो पालन करते हैं लेकिन सत्य धर्म का पालन नहीं करते हैं या सत्य-धर्म को तिलांजलि देकर आचार धर्म का अनुसरण करते हैं, तो उन्हें कोई फल प्राप्त नहीं होता है। ये दोनों ही धर्म एक दूसरे के साथ साधन रूप में गुथे हुए हैं और उन्हें ऐसा ही माना जाना चाहिए। एक वरिष्ठ अधिकारी अपने कनिष्ठ कर्मचारी से जितना अधिक काम करवाना चाहता है उतना ही कनिष्ठ कर्मचारी को अपने वरिष्ठ अधिकारी से सहायता प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। तब कौन बंधन में है और कौन मुक्त। दोनों ही सांसारिक सुख और आनंद प्राप्त करने के लिए अपनी इच्छाओं के वशीभूत हैं; उनसे बंधे हुए हैं। जब तक आत्मा के मूलभूत रहस्य का ज्ञान नहीं होता है, तब तक दास्तां की बाह्य स्थिति कायम रहेगी। जैसे ही इस रहस्य को समझ लोगे इंद्रियों की दास्तां और वस्तुनिष्ठ संसार का बोझ कम हो जाएगा। तब वस्तुनिष्ठ संसार की व्यवहार संहिता अभ्यांतरिक देवत्व की संहिता के साथ मिलकर एक रूप हो जाएगी और सभी प्रेरणाओं और मनोवेगों से सद्भावपूर्ण सहयोग प्राप्त होता रहेगा।
वेदांत, आध्यात्मिक शास्त्र और धर्म ये सभी मनुष्य को भगवान की तरह रहने और कार्य करने की प्रेरणा देते हैं, ना कि दास की तरह जीवन व्यतीत करने की। इस प्रकार की स्थिति में सभी कार्य धर्म-कर्म हो जाते हैं ना कि काम में कर्म अर्थात वे कर्म जो फल प्राप्ति की इच्छा से किए जाते हैं। दास्तां की बेड़ियों को केवल कार्य के प्रकार या ढंग को बदलकर काटा नहीं जा सकता । इन बेड़ियों को तभी काटा जा सकता है जब मनुष्य अपनी देह से ध्यान हटाकर सृष्टिकर्ता की ओर ध्यान केंद्रित करे। इससे नैतिक गुणों में अधिक वृद्धि होगी। कुछ व्यक्तियों का यह विचार है कि किसी काम में लग जाना या व्यस्त रहना ही बंधन है और घर में बेकार बैठना स्वतंत्रता है। यह बुद्धि की कमी का प्रतीक है। जब कोई मनुष्य किसी नौकरी में लग जाता है, जब उसे वरिष्ठ अधिकारी की आज्ञा का पालन करना पड़ता है लेकिन घर में रहकर भी क्या कोई अपने संबंधियों, पारिवारिक सदस्यों की आवश्यकताओं और दबावों से बच सकता है, उन्हें नजरअंदाज कर सकता है? अच्छा, केवल अपनी मित्र मंडली में ही रहकर क्या कोई उनकी रुचि के विरुद्ध कार्य कर सकता है या उनकी रूचि के अनुसार कार्य करने की आवश्यकता को टाल सकता है? क्या कोई अपने शरीर की रक्षा करने या आराम पाने की आवश्यकता से स्वतंत्र हो सकता है ? तब वह किस प्रकार स्वतंत्र रह सकता है? जबकि उसे उपर्युक्त कार्य करने ही पड़ते हैं, बंधन के पिंजड़े में बंद रहना ही पड़ता है। इस बात को चाहे भिन्न-भिन्न ढंग से क्यों ना कहो, है यह संपूर्ण जीवन एक जेल ही । यह जेल तब तक रहेगी, जब तक कि इस शरीर को ही सब कुछ समझा जाएगा।
यही कारण है की शंकराचार्य ने एक बार कहा था “कि देह पर आधारित अहम भाव का ही अर्थ नर्क है।” इस प्रकार का अहम भाव देव विरोधी मनोवृत्ति का दूसरा रूप है। इस पृथ्वी पर से सभी कांटों और कंकरों को कौन दूर कर सकता है? इनसे बचने का एकमात्र उपाय यही है कि पृथ्वी पर जूता पहन कर चला जाए। यही बात वेदांत-दर्शन के साथ भी लागू होती है। अपनी दृष्टि को सत्य पर गड़ाए हुए, ब्रह्म में पूर्ण आस्था और विश्वास रखते हुए, जो कि तुम्हारा मूल स्वभाव है, तुम अपने सुख के आदर्श के उपर्युक्त बाह्य जगत को परिवर्तित करने की आवश्यकता से बच कर निकल सकते हो और सत्य-धर्म को प्राप्त कर सकते हो। जो अपने अहम भाव को कुचल देता है और दृढ़-विश्वास के साथ इस प्रकार घोषणा करता है कि “मैं इस शरीर का, जो सभी प्रकार के भोगाधिकारों की खान है, उसका गुलाम नहीं हूं । यह देह मेरी गुलाम है। मैं ही प्रत्येक वस्तु का स्वामी और उसके काम लेने वाला हूं, मैं ही स्वतंत्रता का साकार रूप हूं”, वह पहले ही मुक्त है, स्वतंत्र है। अहं को नष्ट करने की इस प्रक्रिया में सभी कर्तव्य-सहिताएं सहायक होनी चाहिए। उन्हें अहं को ना तो विकसित ही होने देना चाहिए और ना ही बेतहाशा बढ़ने देना चाहिए। यही मुक्ति प्राप्त करने का पथ है। यदि कोई मनुष्य अपने पुत्र के साथ रहता है और वहां रहकर कष्ट में जीवन व्यतीत करता है, इसीलिए वह अपनी पुत्री के घर जाकर जीवन यापन करता है, यह कोई स्वतंत्रता प्राप्त करना नहीं हुआ। यह तो अहं को पालने का केवल एक ढंग है, इंद्रिय सुखों की प्राप्ति की खोज को धर्म के रूप में बढ़ावा नहीं दिया जा सकता।
आखिरकार, घर किसके लिए होता है? यह भगवान की आराधना से प्राप्त होने वाले स्वर्गीय सुख का आनंद-लाभ करने के लिए, शांत चित्त होकर भगवान का निरंतर ध्यान करने के लिए है। अन्य सब कुछ छोड़ा जा सकता है, किंतु इनको नहीं । व्यक्ति का सत्य-धर्म परमात्मा के साथ मिलने के स्वर्गीय आनंद का रसास्वादन करना है और वास्तविक मुक्ति प्राप्त करना है। जो व्यक्ति इस स्थिति को प्राप्त कर लेता है, वह कभी भी बंधनों में नहीं बन सकता। कभी भी सांसारिक जंजालों में नहीं फंस सकता, चाहे उसे भयंकर से भयंकर जेल में क्यों ना डाल दिया जाए। इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने शरीर का गुलाम होता है, उसके लिए घास काटने का एक पतला ब्लेड मृत्यु का कारण बन सकता है। सच्चा धर्म, आत्मिक आनंद, आभ्यांतरिक दृष्टि, परमसत्ता के साथ व्यक्ति की मूल स्वाभाविक प्रकृति के तादात में दृढ़ विश्वास और ब्रह्म की सर्व व्यापकता की अनुभूति में निहित रहता है। यह चारों प्रामाणिक धर्म हैं। इस भौतिक सत्ता में, इन चारों को अभ्यास की सुविधा के लिए, सत्य, शांति, प्रेम और अहिंसा के रूप में प्रथक-प्रथक नाम दिए गए हैं ; हालांकि ये सभी आत्मिक सत्य आंतरिक धर्म में समाए हुए हैं, ताकि विशिष्ट जन, जो इस परम सत्ता के केवल साकार स्वरूप हैं, नित्य प्रति उनका अनुसरण करें। उनका अनुसरण करने की विधि यह है कि इन उच्चसिद्धांतों , उच्चादर्शों के प्रत्येक विचार को कार्य में परिणित किया जाए। सत्य, शांति, अहिंसा और प्रेम वास्तव में आज भी आत्मा में सतत निमग्नता, आंतरिक सत्य पर दृढ़दृष्टि, व्यक्ति के वास्तविक स्वभाव के चिंतन और इस ज्ञान में है कि सभी ब्रह्म है, जो एक ही है। इन मौलिक-अमौलिक, वास्तविक-कृत्रिम सिद्धांतों में समन्वय और सामंजस्य अवश्य होना चाहिए। तभी इनको समन्वित रूप में आत्म-धर्म की संज्ञा दी जा सकती है।
तुम्हारा क्या कार्यकलाप या गतिविधि है या तुमने क्या नाम और रूप चुना है , इससे कोई मतलब नहीं! एक जंजीर जरूरी हो सकती है, वह किसी भी धातु की क्यों ना बनी हो अर्थात चाहे लोहे की बनी हो या सोने की, वह बांधने का काम करती है। उसी प्रकार, कार्य चाहे एक प्रकार का हो या किसी दूसरे प्रकार का, जब तक उसका आधार सत्य धर्म है और उसका मूल आत्मतत्व, तब तक वह निस्संदेह धर्म है, धार्मिक कार्य है। इस प्रकार का कर्म व्यक्ति को आशीर्वाद स्वरुप शांति फल प्रदान करेगा। जब किसी के मन में अहंकार, भय लोभ या लालच की तरंगे उठती हैं, चाहे वह गुप्त स्थान हो, चाहे निर्जन वन हो और चाहे वह कोई अन्य आश्रय स्थान हो, उसके लिए कष्ट से बचना असंभव हो जाता है। नाग जब कुंडली आकार में बैठता है, तब भी नाग तो नाग ही रहता है, कुछ और नहीं कहलाता। हर हालत में वह नाग ही बना रहता है। दैनिक व्यवहार में जब कार्य आत्म-सत्ता के मौलिक सिद्धांत द्वारा प्रेरित होते हैं तब इस प्रकार के प्रत्येक कार्य पर धर्म की मुहर लग जाती है। लेकिन जब कार्य सुख-सुविधा और निजी स्वार्थ से प्रेरित होकर किए जाते हैं, तब धर्म छद्म या मिथ्या धर्म में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार के कार्य आकर्षक चाहे क्यों ना हो, नाना प्रकार की दास्तां के रूप होते हैं। जिस प्रकार जेल के कैदियों को चाहे जेल के वार्डन एक लाइन में खड़ा करें, चाहे उन्हें अदालत में ले जाएं चाहे उन्हें खाने-पीने और आराम करने के लिए बैरकों में बंद कर दें, वे कैदी कष्ट ही झेलते हैं, किए गए अपने अपराधों का फल भी भोंगते हैं; उसी प्रकार जो इंद्रियों के दास हैं और इंद्रियों के वशीभूत होकर तत्परता से अपनी इंद्रियों को तृप्त करते हैं, वे या तो दुख प्राप्त करते हैं या क्षणिक सुख या राहत, जो अंततोगत्वा दुख में बदल जाता है।
“वह मित्र है” या “वह दुश्मन है, शत्रु है” कि भावना भी गलत है। इस भ्रम को निकाल दिया जाना चाहिए। प्रेम स्वरूप भगवान ही केवल स्थाई मित्र, सखा, संबंधी, साथी, मार्गदर्शक और संरक्षक हैं। केवल इस तथ्य को जानो और इस ज्ञान के अनुसार ही जिंदगी गुजारो। यही समझदारी या बुद्धिमता की आधारशिला पर निर्मित धर्म है, इस प्रकार का जीवन ही धर्म की आधार-शिला पर निर्मित होता है। इस मूलभूत आधार की उपेक्षा करके, जब ध्यान बाहरी चमक या रूप-रंग पर केंद्रित हो जाता है, तब लक्ष्य को प्राप्त करना सामर्थ्य से परे हो जाता है। केवल भगवान के प्रति आसक्ति के द्वारा ही सांसारिक आसक्ति खत्म हो सकती है अर्थात जब भगवान से लगन लग जाती है, तब सांसारिक मोह-ममता खत्म हो जाती है। जब तुम लगातार टकटकी लगाकर आसमान की ओर ही देखते रहते हो, तब यह शिकायत क्यों! कि तुम्हें जमीन दिखाई नहीं देती। जमीन पर निगाह डालो और पानी की सतह पर आसमान की परछाई देखो, तब तुम साथ-साथ ऊपर आसमान और नीचे जमीन देख सकते हो। उसी प्रकार यदि तुम सत्य-धर्म का पालन करते हो ( जो कि आखिरकार अंतर्यामी आत्मिक सिद्धांत का अभ्यास है), तो तुम्हें आत्मा की महिमा का प्रतिबिंब प्रत्येक कार्य में दिखाई पड़ेगा। तभी परमात्मा के प्रति आसक्ति, सांसारिक आसक्ति को शुद्ध समर्पण में बदल देगी । लक्ष्य को परिवर्तित या कम नहीं किया जाना चाहिए अर्थात सात्विकता को अखंड बनाए रखना चाहिए । धर्म विभिन्न प्रकार के नामों और रुपों पर आश्रित नहीं है, जो उसके अमल करने के दौरान पड़ जाते हैं; वे इतने मौलिक नहीं होते हैं। यह (धर्म) अधिकतर प्रेरणाओं और अनुभूतियों पर आधारित होता है, जो इसे संचालित करती हैं और एक ही धारा में प्रभावित करती हैं।