इस पुस्तक में प्रशांति निलयम से प्रकाशित होने वाली
मासिक पत्रिका "सनातन सारथी" के अंतर्गत भगवान
श्री सत्य साई बाबा द्वारा धर्म सिद्धांतों पर लिखे गए
लेख प्रस्तुत किये गए हैं |
मानव को अपने आप को धर्म के प्रति समर्पित कर देना चाहिए और उसे सदैव धर्म- कार्य करने में लगे रहना चाहिए । जिससे कि वह स्वयं शांतिपूर्ण जीवन बिताए और यह संसार भी शांति का आनंद प्राप्त करे। जब तक वह धार्मिक जीवन व्यतीत नहीं करेगा, उसे ना तो वास्तविक शांति प्राप्त हो सकती है और ना ही वह भगवान की दया का पात्र बन सकता है । धर्म मानव कल्याण की नींव है, यह वह सत्य है जो चिरस्थाई है । जब धर्म मानवीय जीवन का स्वरूप बदलने में असमर्थ हो जाता है, तब इस संसार में भयंकर क्रांति पैदा हो जाती है और संपूर्ण संसार दुख, कष्ट और भय से त्रस्त हो जाता है। जब धर्म की ज्योति मानवीय संबंधों को ज्योतिर्मय बनाने में विफल हो जाती है, तब मानव जाति दुख रूपी रात के अंधकार में डूब जाती है।
ईश्वर धर्मा अवतार हैं धर्माचरण द्वारा ही हम उनकी दया के पात्र बन सकते हैं, वह सदा धर्म का पोषण करते हैं । धर्म की स्थापना करते हैं, वे स्वयं धर्म हैं। वेद , शास्त्र, पुराण और इतिहास धर्म की महिमा का बखान करते हैं । विभिन्न धर्मों में प्रचलित धार्मिक ग्रंथों में धर्म अनुयायियों की ही भाषा में धर्म के बारे में बताया गया है। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह हर समय हर स्थान पर धर्म के मानवीय स्वरूप धर्म नारायण के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करे। धार्मिक कृत्यों की धारा सदैव बहती ही रहनी चाहिए , उसे कभी सूखने नहीं देना चाहिए ; अर्थात मनुष्य को धर्म-कार्य हमेशा करते ही रहना चाहिए , क्योंकि इसके शीतल जल के प्रभाव के रुक जाने पर घोर विपत्ति और संकट पैदा होना अवश्यंभावी है । मानवता इस स्थिति को प्राप्त कर चुकी है क्योंकि धर्म सरस्वती नदी के समान है जो अदृश्य है और भूमि के नीचे बहकर जडों को सींचती है और स्त्रोतों को परिपूर्ण करती है। इसी प्रकार धर्म भी अदृश्य रूप में मानवता की जड़ों को सींचकर और उनका पालन- पोषण कर उसे पुष्ट बनाता है। धर्म का पालन केवल मनुष्य को ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों को भी करना चाहिए। क्योंकि धर्म पालन करके वे सुख-शांति प्राप्त कर सकते हैं।
अतः धर्म की अविरल धारा को निरंतर प्रवाहित रखना अत्यावश्यक है, जिससे कि यह संसार सुख-शांतिमय जीवन यापन कर सके। संसार के रंगमंच पर घोर विनाश लीला हो रही है क्योंकि सत्य की उपेक्षा और अनादर हो रहा है और धार्मिक जीवन के सिद्धांतों में आस्था और अविश्वास प्रगट किया जा रहा है । इसीलिए मनुष्य को धर्म के तत्व को ठीक प्रकार समझ लेना चाहिए।उसे यह भलीभांति जान लेना चाहिए कि धर्म क्या है ? धर्म का सार क्या है? मनुष्य, एक साधारण मनुष्य यदि धर्म का पालन करता है, तो क्या वह सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है, अपना अस्तित्व कायम रख सकता है ? मानव-मन इन भ्रमों में फंसा हुआ है और उसके जीवन में यह स्वाभाविक भी है, इसीलिए उसके इन भ्रमों को दूर करना , शंकाओं का समाधान करना आवश्यक ही नहीं बल्कि अत्यावश्यक है।
जैसे ही एक आम आदमी धर्म की बात करता है, वह समझता है-भीख देना, भूखे प्यासे को भोजन कराना और पानी पिलाना तथा तीर्थयात्रियों आदि के लिए रहने की व्यवस्था करना, परंपरागत कार्य-व्यवसाय करते रहना , नियमों का पालन करने का स्वभाव, सत्य-असत्य में भेद करना, नैसर्गिक प्रवृत्ति के अनुसार कार्य करना, अपनी उत्कृष्ट अभिलाषाओं और इच्छाओं की पूर्ति करना इत्यादि-इत्यादि।
वास्तव में बहुत अधिक समय से धर्म का निर्मल स्वरूप मलिन पड़ता जा रहा है और वह पहचानने में नहीं आता | उपेक्षित होने पर सुंदर-सुंदर खेत और कुंज भी जंगल जैसे हो जाते हैं और शीघ्र ही यह ऐसी झाड़ियों और कटीले जंगलों में परिवर्तित हो जाते हैं जो पहचानने में भी नहीं आते, लोभी लालची जब अच्छे और हरे भरे पेड़ों को काट डालते हैं, तब वहां की रमणीय प्राकृतिक छटा ही बदल जाती है | समय के साथ-साथ, लोगों में नई-नई आदतें पड़ जाती हैं और वे इस परिवर्तन या क्षय की गति को नहीं समझ पाते, ऐसा ही धर्म के साथ भी हुआ है।
प्रत्येक व्यक्ति को धर्म की रूपरेखा को समझ लेना चाहिए, जिसकी व्याख्या वेदों, शास्त्रों और पुराणों में की गई है | अल्पबुद्धि से कुछ का कुछ समझ बैठने से , निरंकुश मनोविकार और दूषित तर्क-वितर्कों से धर्म के गौरव को बहुत बड़ा धक्का लगा है | जिस प्रकार स्वच्छ नीले आकाश से जो वर्षा की बूंदे गिरती हैं, वे स्वच्छ होती हैं ,लेकिन पृथ्वी पर गिरने पर उनका रंग बदरंग हो जाता है और वर्षा का पानी गंदा हो जाता है | उसी प्रकार प्राचीन ऋषियों ने हमें जो निष्कलंक संदेश दिए हैं, हमारे समक्ष अपने सत्कार्यों के ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किए हैं और अपने कार्यों द्वारा जो अच्छी और स्वच्छ प्रेरणा दी है | उन्हें आज के तथाकथित व्याख्याताओं एवं विद्वानों ने नए ढंग से भद्दे, व्यंग पूर्ण रूप में चित्रित किया है।
बच्चों की किताबों में पाठ को समझाने के लिए चित्र दिए होते हैं , लेकिन उन चित्रों का उद्देश्य बच्चों को पाठ में दी हुई बातों को समझाना होता है, ना कि चित्रों को देखकर उन्हीं में लगे रहना और उनसे मनोरंजन करना और असली बात या तथ्य पर गौर ना करना | जिस प्रकार बच्चे उन चित्रों को देखने में ही अपना समय लगाते हैं ; उन चित्रों के माध्यम से पाठ का सार ग्रहण नहीं करते, उसी प्रकार अविवेक और अशिक्षित लोग धार्मिक कृत्यों और अनुष्ठानों को समझने में गलती करते हैं; वे उनके पीछे छिपे सत्य पर ध्यान नहीं देते | उन कृत्यों से उन्हें जिस सत्य को ग्रहण करना चाहिए, उसकी उपेक्षा करते हैं | सड़क पर यात्रा करने वाले यात्री जब चलते-चलते थक जाते हैं, तब उसके किनारे लगे वृक्षों की शीतल छाया में या अन्य आराम के स्थानों पर बैठकर आराम करते हैं | आराम करते समय, कुछ नहीं तो वे पेड़ की टहनियां ही तोड़ देते हैं या और कुछ तोड़फोड़ करते हैं और इस प्रकार जिन साधनों से उन्हें आराम मिल रहा है, उन्हीं की उपेक्षा कर उनको हानि पहुंचाते हैं | इसी प्रकार मंदबुद्धि और भ्रष्ट लोग वैदिक नैतिकता की आकृति ही बदल देते हैं और दुनिया को यह विश्वास दिलाकर कि वे तो वेदों की शिक्षा के अनुसार ही कार्य करते हैं, धोखा देते हैं।
जब धर्म की इस प्रकार धज्जियां उड़ाई जाती है, उसे क्षत-विक्षत किया जाता है और भगवान के शत्रु धर्म की आकृति ही विकृत करते हैं, तब ईश्वर देवी-देवताओं और दिव्य-आत्माओं के आह्वान पर स्वयं धर्म और कर्म के क्षेत्र में सत्य की स्थापना करते हैं; आदर्श उपस्थित करते हैं और धर्म को व्यवहार में लाकर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
आज, वर्तमान अज्ञान को कौन ठीक कर सकता है ? मनुष्य को छह शत्रु वर्ग के षठगुणीं दैत्यों को खत्म कर देना है जो उसे काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर में फंसा कर घोर विपत्ति की ओर ले जा रहा है केवल इस प्रकार ही धर्म की स्थापना की जा सकती है।
वेदों ने भगवान को धर्म और बुद्ध ने भगवान को विज्ञान कहा है; क्योंकि उन दिनों में कोई वेद कहना पसंद नहीं करता था, जैसे कि सोमक असुर के समय में जो लोग वेदों का अनुसरण करते थे,वे वेद कहने से भी डरते थे ; क्योंकि लोगों को मृत्यु का भय रहता था | इसीलिए इस प्रकार का व्यवहार उस समय ठीक था | यद्यपि बुद्ध ने वेदों को विज्ञान कहकर पुकारा था, फिर भी उन्हें वेदों के प्रति प्रेम था | वे सदैव ईश्वरीय तत्व से परिपूर्ण रहे | बुद्ध के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वे नास्तिक थे | ठीक है, यदि वे नास्तिक थे, तो आस्तिक कौन है? जबकि बुद्ध का संपूर्ण जीवन ही एक धार्मिक आख्यान है| शंकर की कुछ लोग यह कह कर आलोचना करते हैं कि वे धर्म और कर्म के विरोधी थे, लेकिन उन्होंने उस धर्म और कर्म का विरोध किया है जो इच्छाओं की पूर्ति को सामने रखकर किया जाता है| सच पूछा जाए तो वे एक महान गुरु थे, जिन्होंने धर्म और कर्म का पाठ पढ़ाया | उन्होंने लोगों को बताया कि जब वास्तविक सत्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयास किया जाता है, तभी वह प्रयास धर्म और कर्म के अंतर्गत माना जाता है।
सत्य पर आधारित धर्म और कर्म के प्रति शंकर के लगाओ और बुद्ध के वैदिक तत्व के प्रति विश्वास की सराहना वही लोग कर सकते हैं, जिनका दृष्टिकोण उच्च और व्यापक है, संकुचित नहीं है | बिना व्यापक दृष्टिकोण का व्यक्ति व्याख्या करने में भूलता-भटकता रहता है एक ऊंचे स्थान पर चढ़ने के लिए उस स्थान के बराबर एक ऊंची सीडी होना आवश्यक होता है न ?
जो भी अपने अहम को वश में कर लेता है, अपनी स्वार्थ पूर्ण इच्छाओं और अभिलाषाओं पर विजय प्राप्त करता है, अपनी पाशविक भावनाओं और मनोवेगों को नष्ट करता है और शरीर को ही आत्मा मानने की अपनी मूल प्रवृत्ति को छोड़ देता है, वास्तव में वही धर्म के पद पर है| उसे यह मालूम रहता है कि धर्म का लक्ष्य आत्मा को परमात्मा में उसी प्रकार लीन करना है, जिस प्रकार की लहरें समुद्र में विलीन हो जाती हैं।
सभी सांसारिक मार्गों में, तुम्हें इस प्रकार सावधान रहना चाहिए कि तुम्हारे कार्यों से मर्यादा और सदाचार के सिद्धांतों को चोट ना पहुंचे | अंतरवाणी से प्रेरित होकर अपनी मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए, तुम्हें कोई गलत काम नहीं करना चाहिए; तुम्हें हमेशा अपनी आत्मा की आवाज का सम्मान करना चाहिए | तुम्हें अपने कदमों की निगरानी करनी चाहिए कि वे कहीं गलत तो नहीं पड़ रहे हैं अर्थात तुम कहीं गलत काम की ओर तो अग्रसर नहीं हो रहे हो | संसार की विविधता में नाना प्रकार की सुहावनी वस्तुओं में, एकता के सत्य की खोज करने के लिए तुम्हें सदैव तत्पर रहना चाहिए | यही मनुष्य का परम कर्तव्य है; यही तुम्हारा धर्म है | ज्ञानाग्नि की धधकती हुई ज्योति आपको विश्वास दिलाती है कि यह सभी कुछ ब्रह्मा है (सर्वं खल्विदं ब्रह्म ); यह तुम्हारे संपूर्ण अहम और सांसारिक मोहों को जलाकर भस्म कर देगी | तुम्हें ब्रह्म के साथ एक्य स्थापित करके आनंद में मस्त हो जाना चाहिए | तुम्हारा सांसारिक नशा उतर जाएगा और तुम ईश्वरीय नशे में मस्त रहोगे | धर्म का यही परम लक्ष्य है और धर्म में प्रवृत्त होकर इसी प्रकार के पारलौकिक कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
वेदों का संदेश है कि “ज्ञान की वेदी पर अज्ञान और अहंकार को त्याग दो और उसके स्थान पर धर्म को स्थापित करो”| ऐसा प्रत्येक निष्काम कर्म धार्मिक कर्म है, जो आत्मा को परमात्मा में लीन करने के लिए आधार तैयार करता है - जो दृष्टिकोण को इस प्रकार व्यापक बनाता है कि ब्रह्म सर्वत्र है, सर्व व्यापक है | इस प्रकार का प्रत्येक कर्म उस छोटी सी धारा के समान है जो पवित्रता की नदी में मिलकर ब्रह्मज्ञान रूपी समुद्र की ओर तेजी से बढ़ती है | समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त परमात्मा की पूजा और भक्ति के तुम जो भी कार्य करते हो, वे सभी धार्मिक कृत्यों और अनुष्ठानों की कोटि में आते हैं| जो भी कर्म समर्पण की भावना से किया जाता है, वह धर्म का ही अंग है, जिससे आत्मानुभूति प्राप्त होती है | भारतीय जीवन दर्शन में भगवत प्राप्ति या भगवान को पूरी तरह समझने के प्रयास में प्रत्येक आन्दोलन और प्रत्येक शब्द, विचार और कार्य के पवित्री करण पर जोर दिया गया है अर्थात ईश्वर प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हम मन, वचन और कर्म से शुद्ध बने।
तुम्हें प्राचीन धर्म-कर्मों को समझने के लिए उनके प्रतीकात्मक अर्थों पर गौर करना है | आध्यात्मिक क्षेत्र में ऐसे अनेकों तकनीकी शब्द हैं, जिनके अपने निजी विशेष अर्थ और भाव हैं | इस विशिष्ट शब्दावली को तुम्हें ठीक प्रकार से समझना होगा, जिससे कि तुम शास्त्रों की शिक्षा सही-सही ग्रहण कर सको | उदाहरणार्थ, पुराने जमाने में लोग यज्ञ करते थे और इन यज्ञों में वे पशुओं की बलि चढ़ाते थे, लेकिन पशु प्रतीक मात्र हैं| यह कोई मुंह प्राणी नहीं होता था, जिसे टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता था | बलिदान की वेदी पर मनुष्य द्वारा उसकी जीवन लीला समाप्त किए बगैर भी पशु त्यागमय जीवन व्यतीत करता है| जिस पशु की बलि चढ़ाई जानी चाहिए, वह बिल्कुल भिन्न है | आध्यात्मिक शब्दावली में पशु या जीवन का अर्थ है “शारीरिक चेतना” “अहम् चेतना” और इनकी ही बलि चढ़ाई जानी चाहिए । ईश्वर को पशुपति या गोविंद कह कर पुकारते हैं । पशुपति का अर्थ है सभी पशुओं का स्वामी । यहां पशु का अर्थ है जीव | गोविंद का भी अर्थ है जीव का संरक्षक, गो का अर्थ है जीव | गोपालन श्री कृष्ण की प्रतीकात्मक लीला है | वास्तव में, इसी प्रतीकात्मक लीला के माध्यम से वेअपनी जीवन-लीला या जीव-रक्षा का लक्ष्य प्रदर्शित करते हैं।
शास्त्रों में गूढ आभ्यांतरिक अर्थ भरे पड़े हैं | धर्म का उद्देश्य जीवन को इस स्थिति में लाना है, जिससे कि उसका बाह्य प्रकृति के साथ लगाओ खत्म हो जाए और बाह्य प्रकृति के प्रति उसने जो मोह और भ्रम है, उससे उसे छुटकारा मिल जाए | बाह्य प्रकृति की वास्तविक स्थिति से वह अवगत हो जाए, साथ ही साथ उसे अपनी असली सत्ता और अस्तित्व का सही-सही एहसास हो जाए |
शास्त्रों में दिए गए इन अर्थों और व्याख्यानों को जवान, बूढ़ों सभी को पढ़ना चाहिए, उनका मनन करना चाहिए | उदाहरण के लिए हम शिव-मंदिर पर ही विचार करें | शिव-मंदिर में शिव-मूर्ति के ठीक सामने नंदी की मूर्ति स्थापित रहती है | हम सभी को यह बताया गया है कि यह पवित्र नंदी शिव जी का वाहन है, मंदिर में उसके स्थान उस स्थान पर रहने का यही कारण है | लेकिन सही अर्थों में वह नंदी या पशु जीव का प्रतिनिधित्व करता है और शिव लिंग शिव का प्रतीक है | यह कहा जाता है कि नंदी और लिंग या जीव और शिव के बीच से नहीं निकलना चाहिए क्योंकि उन दोनों को एक रूप हो जाना है , शिव को जीव में और जीव को शिव में लीन हो जाना है | लोग कहते हैं कि शिव को नंदी के दोनों सींगों के मध्य से देखना चाहिए | उनसे जब इस विधि से शिव-लिंग को देखने का कारण पूछा जाता है, तब वे केवल यही उत्तर देते हैं कि, “शिव-लिंग का इस विधि से दर्शन करना अन्य विधियों की अपेक्षा अधिक पुनीत है|” लेकिन इसका आभ्यांतरिक अर्थ कुछ और ही है| इसका वास्तविक अर्थ है, “तुम्हें शिव का दर्शन जीव में करना चाहिए”| पशु और पशुपति एक ही हैं | नंदी और ईश्वर मिलकर ही नंदीश्वर हो जाते हैं | जीव-शिव , नंदी-नंदीश्वर एवं पशुपति में एक ही सत्ता विद्यमान है; केवल कहने के दो ढंग हैं | जब तक जीव सांसारिकता के बंधनों में बंधा हुआ है, तब तक चाहे उसे नंदी कहो, पशु कहो या जीव; जब बंधनमुक्त हो जाता है तब वही जीव ईश्वर हो जाता है | सांसारिक बंधनों से मुक्त होने पर ईश्वरत्व या नंदीश्वरत्व की प्राप्ति होती है और जीव द्वारा ईश्वरत्व प्राप्त कर लेने पर उसकी पूजा होती है, वह ईश्वरीय सम्मान और आदर प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है | जब पशु की पशुपति के लिए बलि दे दी जाती है अर्थात जीव ईश्वर में लीन हो जाता है और उसकी स्वतंत्र सत्ता समाप्त हो जाती है, उसका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं रहता, उसी समय और वही वास्तविक यज्ञ होता है | यज्ञ का यह महत्व अब लोगों ने भुला दिया है।
आज ये प्रतीकात्मक कर्म बिल्कुल बदल गए हैं और लोगों को इनका लेश-मात्र भी ज्ञान नहीं है| आजकल के व्यवहार और पुराने समय के सिद्धांतों में बहुत अंतर आ गया है| सांसारिक जीवन के छोटे से छोटे कार्य भी आध्यात्मिकता की पूर्ति के उच्चतर आदर्श से प्रेरित होने चाहिए, तभी साधारण मनुष्य को उस परम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ाया जा सकता है | यदि तुम किसी कार्य को उसके करने की विधि और उसके प्रयोजन को समझे बगैर करते चले जाओगे, तो वह कार्य ठीक कार्य ना होकर हंसी-मजाक होगा | एक बार, प्रह्लाद ने भी कहा था, “चूंकि अहम् को नष्ट करना कठिन है, इसीलिए उसके स्थान पर मनुष्य इस गूंगे पशु की बलि देना सरलता समझता है | पशु बलि एक तमो-गुणी कार्य है यह तो बंधन का मार्ग है | मुक्ति प्राप्त करने के ईश्वरीय पथ में अहम् रूपी पशु की बलि देना ही सात्विक यज्ञ है।”
इस प्रकार प्राचीन काल का परमार्थ वर्तमान समय में पामरार्थ (पामर + अर्थ) के रूप में परिवर्तित हो गया है ( परमार्थ का अर्थ है आध्यात्मिक लक्ष्य जबकि पामरार्थ का आशय है मूर्खों का लक्ष्य ) | इस प्रकार हर पुरानी प्रथा और परंपरा जो पहले सारगर्भित और अर्थपूर्ण थी ,अब दिन प्रतिदिन भ्रष्ट होती जा रही है | उनमें अनेकों शाखाएं-प्रशाखाएं निकल गई हैं | लोग यह समझने में असमर्थ हो रहे हैं कि अमुक प्रथा या परंपरा का आशय क्या है | यह अब संभव नहीं है कि इस वृक्ष को जड़ से उखाड़ डाला जाए और उसके स्थान पर एक नया पौधा लगाया जाए | अतः इस वृक्ष को काट-छांट कर ठीक कर दिया जाए | जिससे कि वह संवर-सुधर कर ठीक प्रकार से बढे | मुक्ति प्राप्ति के परम लक्ष्य को सदा याद रखना चाहिए, उसे सांसारिक विषय-वासनाओं संबंधी निम्नतम लक्ष्य के साथ मिलाना नहीं चाहिए।